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    बचपन सभी का खूबसूरत है कुछ खट्टी तो कुछ मीठी यादें हम सबके जीवन में होती है। जब छोटे होते हैं तो बड़े होने की जल्दी होती है और जब बड़े हो जाते हैं तो फिर से  उस बचपन को जीने का मन करता है।

    बचपन में जब हमारी बेस्ट फ्रेंड किसी और से बात करती थी तो हमें बुरा लगता था ये सोच कर कि कोई और हमारी बेस्ट फ्रेंड को हमसे दूर ना कर दे।

    जब भी कोई छोटे-मोटे झगड़े हम बहन भाइयों या दोस्तों में होते हैं तो हम बहुत ही बचपने में और प्यार से कहते थे कि मैंने जो कल तुम्हें चॉकलेट खिलाई थी मुझे तो वही चॉकलेट वापस चाहिए, चलो मेरी चॉकलेट वापस निकालो।और दूसरा बच्चा बहुत ही मासूमियत से बोलता कि वो तो मेरे पेट में चली गई अब कैसे निकालूं उसे……

    जब भी कभी इन छोटी-छोटी बातों को याद करते हैं या अपने आसपास में, बच्चों को हमारे  जैसा बचपना करते हुए देखते हैं तो अच्छा लगता है ऐसा लगता है जैसे फिर से हम अपने बचपन में चले गए हैं।

    बचपन में जब स्कूल नहीं जाना होता था तो हमें बुखार आ जाता था। मम्मी- पापा सिर पर हाथ रख कर देखते  और कहते कि सिर तो ठंडा है। पर हम भी अपनी बातों में अड़े रहते कि नहीं नहीं हमें तो बुखार ही आया है,और तब मम्मी पापा हंस कर कहते अगर स्कूल नहीं जाना  है तो वैसे ही बता दो कम से कम बुखार तो नहीं आएगा।

    बचपन में जब मम्मी पापा छोटी बहन भाई को ज्यादा प्यार करते हैं तो हम मुंह फुला कर बैठ जाते  कि हमें भी इतना ही प्यार चाहिए।

    बचपन में जब मैं बीमार होती थी तो पापा मुझसे अपने हाथों से खाना खिलाते थे उस वक्त दीदी और भैया कहते थे कि इसके तो बड़े मजे हैं पापा अपने हाथों से खाना खिला रहे हैं, हमें तो कभी नहीं खिलाया। और मैं इतरा कर कहती कि मैं बीमार हूं अभी। और जो बीमार होते हैं उन्हें पापा खाना खिलाते हैं।

    और हम बहन भाइयों की बात सुनकर पापा कहते हैं कि मेरी बेटी ने जो कहा है वही फाइनल है और यह कह कर हंसने लगते।

    जिंदगी ना बिल्कुल इसी तरह हैहमारा बचपन हम खुद छोड़ते हैं क्योंकि हमें बड़े होने की जल्दी होती है।

    हमारा समाज कहता है कि बड़े बनो, जिम्मेदारियां लो। पर वो ये कभी नहीं कहता कि अपना बचपना छोड़ दो।

    जिम्मेदार होने का मतलब जिन चीजों में हमें खुशियां मिलती है उन्हें छोड़ना नहीं है बल्कि अपनी खुशियों  के साथ साथ खुद की जिम्मेदारियां को संभालना भी है।

    हम क्यों हमेशा खुद को समझदार बनाने में लगे रहते हैं जबकि सच तो ये है कि हमारी समझदारी हमें जिम्मेदार नहीं बनाती बल्कि हमारी खुशियों को कम कर देती हैं।

    इसीलिए बचपना भी रखिए और जिम्मेदार भी बनीए।